अखिलेश कुमार श्रीवास्तव ‘चमन’, सेवानिवृत्त अधिकारी एवं लिटरेरी एडिटर-ICN हिंदी
कहानी
फैक्ट्री के गेट से बाहर निकलने के बाद महेश लाल गेट के बायीं तरफ स्थित कैण्टीन की ओर मुड़ गए। अपनी जर्जर, खड़खड़िया सायकिल को उन्होंने कैण्टीन की दीवार से टिकायी, कैण्टीन में घुस कर वहॉं अलग-अलग मेजों पर छितराए पड़े अखबार के पन्नों को समेटा और उन्हें ले कर अपने नियत स्थान यानी कोने वाली मेज पर जा बैठे। उनको देखते ही कैण्टीन का नौकर छोटू पानी का गिलास रख गया। उसे चाय के लिए कह कर उन्होंने नाक के ऊपर चश्मा चढ़ाया, बीड़ी सुलगायी और बीड़ी को होठों में दबाने के बाद अखबार के पृष्ठों पर ऑंखें गड़ा दीं।
पिछले कई वर्षों से महेश लाल का लगभग नित्य का यही नियम चला आ रहा है। शाम पॉंच बजे फैक्ट्री से निकलने के बाद से ले कर लगभग पौने छः बजे तक का उनका समय नियमित रूप से इसी कैण्टीन में इसी कोने वाली मेज पर अखबारों के पन्ने पलटते हुए बीतता है। महेश लाल अखबार में राजनीतिक उठापटक, अथवा साहित्यिक, सांस्कृतिक आयोजनों की खबरें नहीं पढ़ते। लूट-पाट, चोरी-ड़कैती, या हत्या, बलात्कार आदि की खबरों से भी उन्हें कोई सरोकार नहीं होता। बाजार भाव अथवा शेयर मार्केट के उतार- चढ़ाव में भी उनकी कोई रूचि नहीं है। और खेल-समाचार वाले पृष्ठ पर तो वे नजर भी नहीं ड़ालते। वे तो अखबार में बस एक ही प्रकार की खबर- ‘किसी जवान लड़की के अपने प्रेमी के साथ घर से चुपचाप भाग जाने की खबर अथवा मॉं-बाप से विद्रोह कर के किसी लड़की द्वारा अपनी मर्जी के व्यक्ति के साथ प्रेम-विवाह रचा लेने की खबर’ ढू़ॅंढ़ते हैं। यदि सचमुच अखबार में कोई ऐसी खबर मिल जाती है तो उसे खूब इत्मिनान से, बार-बार पढ़ते हैं, मन ही मन प्रेमी के साथ भागने वाली, या प्रेम-विवाह रचाने वाली उस लड़की की हिम्मत की प्रशंसा करते हैं, उसके सुखी जीवन के लिए ईश्वर से कामना करते हैं, और उस लड़की के बाप की खुशकिस्मती के प्रति ईर्ष्या से भर उठते हैं। फिर चाय पीने के बाद जब कैण्टीन से निकलने लगते हैं तो अखबार का वह पन्ना मोड़ कर अपने झोले में रख लेते हैं और घर लौटने पर उसे जानबूझ कर सामने ऐसी जगह पर रख देते हैं जहॉं उस पर उनकी बेटियों की निगाह पड़ जाय। वह चाहते हैं कि उनकी बेटियॉं प्रेमी के साथ लड़की के भागने वाली या प्रेम-विवाह रचाने वाली खबर को जरूर पढ़ें। वह सोचते हैं कि शायद ऐसी खबरें उनकी बेटियों के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकें।
ऐसा नहीं है कि महेश लाल पश्चिमी संस्कृति के समर्थक हों और जवान लड़के-लड़कियो के स्वच्छन्द मेल-जोल को बहुत अच्छा मानते हों। ऐसा भी नहीं कि वे नारी मुक्ति के पक्षधर हों और लड़कियों की शादी के मामले में अभिवावकवर्ग के हस्तक्षेप को गैरजरूरी मानते हों। और ऐसी भी कोई बात नहीं कि भारतीय संस्कृति, संस्कारों तथा विवाह नामक संस्था में उनकी आस्था न हो। महेश लाल एक ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले मध्यमवर्गीय परिवार के सदस्य हैं, संयुक्त परिवार में पले हैं और भारतीय संस्कृति में उनकी पूर्ण आस्था भी है। लेकिन बात बस वही है कि आदमी परीस्थितियों का दास होता है। मरता क्या न करता। बात जब पेट पर, जान पर, जरूरत पर या आत्म सम्मान पर आ कर टिक जाती है तो व्यक्ति के सारे सिद्धान्त, सारे आदर्श, और सारी प्रतिबद्धतायें धरी की धरी रह जाती हैं। फिर आज, यानी वक्त के ऐसे दौर में जब हर तरफ बस ‘अर्थ’ की ही प्रधानता हो, समाज एक बाजार का रूप ले चुका हो और रिश्ते दुकानों पर सजीं जिन्सों के रूप में बदल गए हों, आदमी संस्कारों का बोझ भला कब तक और कहॉं तक ढ़ोए ? कुछ ऐसी ही स्थिति है महेश लाल की भी। सामाजिक जीवन के कटु यथार्थ और परीस्थितियों की मार ने उन्हें बहुत व्यावहारिक बना दिया है। वक्त ने उनको ऐसी जगह पर ला कर खड़ा कर दिया है कि उनकी निगाह में उचित, अनुचित की परिभाषा ही बदल गयी है। येन, केन, प्रकारेण जिस राह काम बन जाय वही उचित और बाकी सब कुछ अनुचित लगने लगा है उन्हें।
कहीं भी, किसी भी लड़की के अपने प्रेमी के साथ भागने की खबर पढ़ते हैं, या सुनते हैं तो महेश लाल के मन को एक अजीब सी शान्ति मिलती है। वे सोचने लगते हैं- ‘‘कितने भाग्यशाली हैं वे मॉं-बाप जिनकी बेटियॉं ऐसा साहसिक कदम उठा लेती हैं। और कितनी समझदार हैं वो बेटियॉं जो अपने बाप की हिमालय सी बड़ी समस्या को चुटकी बजाते हल कर जाती हैं। काश ! उनकी गऊ सरीखी सीधी-सादी बेटी अनीता को भी ईश्वर इतनी समझदारी और हिम्मत दे देता कि वह अपने निकम्मे बाप के भरोसे बैठी रह कर अपनी जिन्दगी खराब करने के बजाय अपना प्रबन्ध खुद कर लेती। काश ! वह भी किसी खाते-पीते घर के लड़के को पटा कर उसके साथ भाग जाती, या प्रेम विवाह कर लेती तो खुद उसकी समस्या तो हल हो ही जाती साथ ही सुनीता के लिए भी एक रास्ता खुल जाता। और चिन्ता मुक्त हो वे भी चैन की सॉंस लेते।’’
महेश लाल की बड़ी बेटी अनीता अपनी उम्र के तीसवें वर्ष में चल रही थी और छोटी बेटी सुनीता भी अपने जीवन के चौबीस वसन्त देख चुकी थी। शादी की हसरत लिए दोनों अभी कुॅंवारी बैठीं थीं। प्रतीक्षा कर रही थीं कि उनका बाप कोई खूॅंटा तलाश कर उन्हें उससे बॉंध दे और महेश लाल थे कि मजबूत तो दूर कोई कमजोर खूॅंटा भी नहीं ढ़ूढ़ पा रहे थे।
महेशलाल सिमेंट की पाइप तथा जाली बनाने वाली एक प्रायवेट फैक्ट्री में सुपरवाइजर के रूप में कार्यरत हैं। नौकरी प्रायवेट फैक्ट्री की है अतः वेतन के अलावे और किसी प्रकार की ऊपरी आमदनी की कोई गुंजाइश नहीं बनती और फैक्ट्री से मिलने वाली पगार इतनी कम होती है कि अगर पैर ढ़ॅंको तो सिर नंगा और सिर ढ़ॅंको तो पैर। महीने की दूसरी तारीख को मिलने वाली तनख्वाह चौबीस, पच्चीस तारीख आते-आते तक चट हो जाती है और उसके बाद से ही अगले महीने की दूसरी तारीख की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है। यह किसी एक, दो महीने की बात नहीं बल्कि सालों-साल, बारहों महीने यही स्थिति रहती है। ऐसे में बचत कहॉं से हो ? नंगी नहाए तो निचोड़े क्या ? बॅंधी-बॅंधाई तनख्वाह जब परिवार के नियमित खर्चों के लिए ही पूरी नहीं हो पाती तो फिर दान-दहेज के लिए पैसा कहॉं से जुटे ? और यदि दान-दहेज के लिए पैसा नहीं तो फिर बेटियों की शादी कैसे हो ? यही यक्ष प्रश्न था जो महेश लाल के सामने मुॅंह बाये खड़ा था और महेश लाल उससे नजरें चुराते फिर रहे थे।
ऐसा भी नहीं कि महेश लाल बिल्कुल निकम्मे पिता हों और उनको अपनी बेटियों की शादी की चिन्ता न हो। बेटियों के शादी योग्य होते ही एक आम हिन्दुस्तानी बाप की भॉंति वह भी उनके लिए वर ढ़ॅूंढ़ने निकले थे। यहॉं, वहॉं खूब भागदौड़ भी की थी उन्होंने। उनको भ्रम था कि उनकी सुन्दर, शुशील, सुशिक्षित, और संस्कारवान बेटियों की शादी में कोई विशेष परेशानी नहीं आएगी। चटपट तय हो जायेंगी उनकी शादियॉं। लेकिन जब वे वरों की मंड़ी में निकले और दो, चार दुकानों से हो कर गुजरे तो शीघ्र ही उनका भ्रम दूर हो गया। वे जहॉं कहीं भी जाते लड़की के रूप-रंग, शक्ल-सूरत से प्रारम्भ हुयी बात उसके चाल-चलन, शारीरिक गठन, पढ़ाई-लिखाई और घर-परिवार के विवरणों से फिसलती हुयी आ कर अंततः लेन-देन के मुद्दे पर अटक जाती थी। लड़के वालों को जैसे ही महेश लाल की आर्थिक औकात का पता चलता उनकी बातचीत का अंदाज बदल जाता। फिर किसी खूबसूरत बहाने यथा- ‘लड़के को अभी दो साल तक शादी नहीं करनी है’ या ‘लड़की की कुण्डली लड़के की कुण्ड़ली से मेल नहीं खा रही’ या ‘आर्ट्स वाली नहीं बल्कि साइन्स पढ़़ी लड़की चाहिए’ या ‘लड़की की लम्बाई कुछ कम है’ या ‘लड़के के मामा ने कहीं दूसरी जगह बात कर रखी है’ आदि आदि के रैपर में लिपटा इन्कार महेश लाल को थमा दिया जाता। इस प्रकार महेश लाल वर खरीद प्रतियोगिता में जितनी भी बार सम्मिलित हुए हर बार प्रथम चरण में ही अयोग्य साबित हो गए। लगातार असफलता का परिणाम यह हुआ कि महेश लाल नियतिवादी हो गए और कहीं आना-जाना छोड़ किसी दैवीय चमत्कार की आशा में हाथ पर हाथ धर के बैठ गए।
महेश लाल की निष्क्रियता देख उनकी पत्नी झल्ला उठतीं-‘‘समझ में नहीं आता कि तुम कैसे बाप हो। जिनके घर में जवान बेटियॉं होती हैं उन बापों को रात-रात भर नींद नहीं आती है और एक तुम हो कि कोई चिन्ता ही नहीं। कानों में तेल ड़ाले ऐसे सो रहे हो जैसे बेटियों की शादी ही नहीं करनी है।’’
‘‘बेटियों की शादी करनी है तो क्या करूॅं अपने को बेंच दूॅं, कि तुमको बेंच दूॅं या कि कहीं जा कर राहजनी करूॅं, ड़कैती ड़ालूॅं….? बोलो…कहॉं से ले लाऊॅं दहेज के लिए बोरा भर रूपए..?’’
‘‘अरे ! तो क्या दहेज के कारण बेटियों की शादी नहीं करोगे….? एक तुम ही दुनिया से निराले बाप हो जो तुम को लड़के नहीं मिल रहे हैं…? गरीब से गरीब, अपढ़, गॅंवार बाप भी चाहे जैसे हो अपनी बेटियों के हाथ पीले करता है। कानी, कुबड़ी, लूली, लॅंगड़ी तमाम तरह के ऐब वाली लड़कियों की भी शादी हो जाती है। तुम तो फिर भी पढ़े-लिखे हो, नौकरी कर रहे हो….दस लोगों के बीच उठते-बैठते हो….। और हमारी बेटियॉं भी पढ़ी-लिखी हैं, सुन्दर हैं, घर-गृहस्थी के सारे काम जानती हैं….कोई ऐब भी नहीं है इनके अंदर। फिर क्यों नहीं होगी इनकी शादी ? घर में बैठे रहने से थोड़े न कुछ होगा। तुम बाहर निकलोगे, चार लोगों से मिलोगे-जुलोगे, बात करोगे तब न कहीं बात बनेगी कि घर बैठे कोई चला आएगा तुम्हारी बेटियों को ब्याहने के लिए।’’
‘‘ऐसा ही समझो। कहा गया है कि शादियॉं स्वर्ग में तय होती हैं। यानी स्त्री-पुरूष का जोड़ा ईश्वर पहले ही निर्धारित कर देता है उसके बाद उन्हें इस दुनिया में भेजता है। और यह भी कि कोई चाहे लाख हाथ-पॉंव पटक ले दुनिया का हर काम अपने निर्धारित समय पर ही होता है। समय से पहले और भाग्य से अधिक कुछ नहीं मिलता। इसलिए मैं तो यही मानता हूॅं कि जब इनकी शादी का समय आएगा तो भगवान स्वयं इनके लिए वर भेज देगा।’’
‘‘हुॅंह….भगवान खुद वर भेज देगा। भगवान भेज चुका वर और हो चुकी बेटियों की शादी। ऐसे ही बैठे रहो हाथ पर हाथ धरे..। तीसवें में चल रही है अनीता। भगवान ने अभी तक क्यों नहीं भेजा कोई वर….? क्या अभी तक उसकी शादी का समय ही नहीं आया कि भगवान उसका जोड़ा बनाना ही भूल गए ? उसके साथ की लड़कियॉं दो-दो बच्चों की मॉं बन चुकी हैं और वह यहॉं कुॅंवारी बैठी भगवान के भेजे वर की राह देखती बुढ़ा रही है। अरे ! भगवान भी उद्यमियों की मदद करता है काहिलों की नहीं। समझे…?’’
महेश लाल और उनकी पत्नी के मध्य की यह नोंक-झोंक रोजमर्रा की बात हो चुकी थी। बेटियों की शादी एक गंभीर समस्या बनी हुयी थी और इस समस्या के लिए पत्नी महेश लाल को दोषी ठहरातीं तो महेश लाल अपनी पत्नी को। दरअसल अपनी बेटियों की निष्क्रियता, कायरता और सीधाई के लिए महेश लाल अपनी पत्नी को ही जिम्मेदार मानते थे। उनका मानना था कि पत्नी ने दोनों बेटियों को बचपन से ही इतने कड़े अनुशासन में रखा था और उन्हें शुचिता, शालीनता, मान-मर्यादा एवं ऊॅंच-नीच का इतना तगड़ा पाठ पढ़ाया था कि वे बेचारी बिल्कुल ही ड़रपोक और बोदा हो गयी थीं। वो भेड़, बकरियों की तरह सिर झुकाए चुपचाप कालेज जातीं और वैसे ही सिर झुकाए कालेज से लौट कर घर के बाड़े में बंद हो जाती थीं। उनकी पत्नी की चौकसी के कारण ही इक्कीसवीं सदी में जवान हो रही बेटियॉं उन्नीसवीं सदी के संस्कारों को ढ़ो रही थीं। न सिनेमा न थिएटर, न बाजार न हाट न कहीं आना-जाना न कहीं इधर-उधर तॉंक-झॉंक। बस घर से कालेज और कालेज से घर के बीच सिमट कर रह गयी थीं वह दोनां। उनके कालेज से घर लौटने में जरा सी देर हुयी नहीं कि पत्नी हंगामा कर देतीं….कोर्टमार्शल शुरू कर देतीं उन दोनों की। घर में टी0वी0 पर भी संतोषी माता, साईं महिमा, भक्त प्रह्लाद, बाल हनुमान, रामायण, महाभारत, और शिव पुराण, विष्णु पुराण जैसे कार्यक्रमों के अलावे अन्य कार्यक्रम देखने पर सख्त मनाही थी। ऐसे में वो बेचारी दब्बू नहीं तो और क्या बनतीं।
पत्नी भले ही आदर्शों को ढ़ो रही हों लेकिन ठोकरें खाने और समाज का रवैया देखने के बाद महेश लाल व्यावहारिक हो चुके थे। सुबह-शाम, जागते-सोते हर वक्त वे ईश्वर से यही मनाया करते-‘’हे ईश्वर ! मेरी गाय सरीखी बेटियों को ऐसा साहस और सद्बुद्धि दे कि वो अपनी जिन्दगी गारत ना करें। वो लोक-लाज की झूठी बातें भूल जायें, कंधों पर रखा मान-मर्यादा का जुआ उतार फेंकें और रिश्ते-नाते, अड़ोस-पड़ोस, अथवा कालेज के किसी लड़के के साथ भाग कर अपना घर बसा लें।’’ महीना दर महीना और साल दर साल गुजरता रहा लेकिन महेश लाल की अर्जी पर कोई सुनवाई नहीं हुयी। न तो ईश्वर ने कोई वर भेजा और न ही महेश लाल की बेटियों ने कोई साहस भरा कदम उठाया।
एक रात महेश लाल ने अपने मन की बात पत्नी को बतायी-‘‘सुनो ! प्रायः ऐसा सुनने को मिलता है कि फलाने की बेटी फलाने के बेटे के सथ भाग गयी या कि फलाने की बेटी ने अपनी मर्जी से प्रेम विवाह कर लिया। क्या हमारी बेटियॉं ऐसा कुछ नहीं कर सकतीं।’’
सुनते ही उनकी पत्नी हत्थे से उखड़ गयीं-‘‘क्या कहा…? कहीं दिमाग तो नहीं फिर गया है तुम्हारा….? छिः…छिः…छिः…अपनी बेटियों के बारे में ऐसी बात सोचते तुम्हें शर्म नहीं आती ? तुम बाप हो कि दुश्मन…? तुम्हारे जैसे बाप ही कोठों पर बेंच आते हैं अपनी बेटियों को।’’
‘‘अरे! इसमें शर्म आने की क्या बात है भाई। दरअसल तुम मेरा मतलब नहीं समझी। मैं यह कह रहा हूॅं कि दान-दहेज की मंड़ी में तो हम कहीं टिकते नहीं। न दहेज के लिए पैसा जुटेगा न हम दुल्हा खरीद पायेंगे। ऐसे में ये बिचारी हमारे भरोसे यहॉं शादी की आस में बैठीं अपनी जवानी गारत करें उससे अच्छा तो यही है कि किसी ठीक-ठाक लड़के के साथ भाग कर अपना घर बसा लें। मैं तो जात-पात के बंधन को भी जरूरी नहीं मानता। यदि किसी दूसरी जाति के लड़के के साथ चली जायें ये दोनों तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।’’
‘‘हॉं अब यही तो बाकी रह गया है कि बेटियॉं शोहदों के साथ घर से भागें, चारों तरफ थू-थू हो, भरे चौराहे पर इज्जत उछाली जाय और हम कहीं मुॅंह दिखाने लायक भी न रहें। हे भगवान ! यह क्या हो गया है तुमको….? कहीं पगला तो नहीं गए हो…? ऐसी अंट-संट बातें कहॉं से आती हैं तुम्हारे दिमाग में…?’’
‘‘देखो अनीता की मम्मी ! सच बात तो यह है कि कुल-खानदान, मान-मर्यादा और समाज की फिक्र बस हम मध्यवर्ग के लोग ही करते हैं और इसीलिए परेशान रहते हैं। हमसे नीचे यानी निम्नवर्ग वाले पेट के लिए रोटी और तन के लिए कपड़ा जुटाने में ही इस कदर व्यस्त रहते हैं कि उन्हें झूठी मान-मर्यादा और समाज के बारे में सोचने की फुरसत नहीं रहती। और पैसे वाले उच्चवर्ग को इन फालतू बातों की परवाह नहीं होती। उनके पास ताकत है, पैसा है तो सब कुछ अपने आप हासिल हो जाता है। वे सही, गलत जो भी करते हैं वह समाज के लिए आदर्श बन जाता है।’’
‘‘अरे भाई ! सब कुछ के बावजूद हमें रहना तो इस समाज में ही है न…..तो फिर समाज के बंधन को तो मानना ही पड़ेगा। लड़की किसी के साथ भाग जाय या अपनी मर्जी से शादी कर ले यह समाज की निगाह में गलत है तो गलत है…..।’’
‘‘अच्छा मान लो यदि अनीता किसी लड़के के साथ भाग ही गयी तो क्या होगा ? अधिक से अधिक यही तो होगा कि टोले-मुहल्ले, रिश्ते-नाते के लोग हॅंसेंगे, थू-थू करेंगे, हफ्ता, दस दिनों तक खूब चटकारे ले ले कर चर्चा करेंगे। फिर शान्त हो जायेंगे। बहुत होगा रिश्ते, नाते वाले सम्बन्ध खत्म कर देंगे या बिरादरी वाले हुक्का-पानी बन्द कर के बिरादरी से बहिष्कृत कर देंगे। इससे अधिक तो कुछ नहीं होगा न। लेकिन हमारी बेटियों की जिन्दगी तो सॅंवर जायेगी। अपने मन पसन्द आदमी के साथ वो तो खुशी से रहेंगी। हमें इससे अधिक और क्या चाहिए…? अपनी बेटियों की खुशी के लिए मैं दुनिया की हर जलालत सहने को तैयार हूॅं। मैं तो कहता हूॅं कि यदि रिश्तेदारों को या बिरादरी के लोगों को बिरादरी की मान-मर्यादा की इतनी ही चिन्ता है तो कोई मदद के लिए आगे क्यों नहीं आता ? क्यों हर कोई दहेज के लिए मुॅंह बाए रहता है ? क्यों नहीं कोई आ कर कहता कि ‘‘भाई महेश लाल ! तुम्हारी सुन्दर, शुशील बेटियॉं बिन ब्याही ही बूढ़ी हो रही हैं। मैं तुम्हारी आर्थिक मजबूरी समझता हूॅं। तुम्हारे साथ पूरी हमदर्दी है मुझे। मैं बगैर किसी दान-दहेज के अपने बेटे के साथ तुम्हारी बेटी की शादी करने को तैयार हूॅं।’’ क्या रिश्तेदार या बिरादरीवाले मेरी परेशानी नहीं देख रहे..? लेकिन नहीं…। यार-दोस्त हों, रिश्तेदार हों या जाति के नाम पर संगठन बना कर अपनी दुकानदारी चलाने वाले बिरादरी के नेता सब के सब झूठे, मक्कार और मतलबी हैं। बस घड़ियाली ऑंसू बहाना जानते हैं सारे के सारे। सभाओं में दहेज की कुरीति मिटाने का आह्वान करते हैं, आपसी सहयोग बढ़ाने और संगठित होने की बात करते हैं, लम्बे-लम्बे भाषण देते हैं और उनके दरवाजे पर जाओ तो खुद अपने बेटे की शादी में लाखों का दहेज मॉंगने लगते हैं। ऐसे दोगले बेशर्म समाज की चिन्ता क्यों करें हम ? इनके ही जबाब के लिए जरूरी हैं अंतर्जातीय प्रेम-विवाह। अंतर्जातीय प्रेम-विवाहों को बढ़ावा मिलेगा तभी खतम होगी समाज से दहेज की समस्या। न सिर्फ दहेज की समस्या बल्कि हिन्दू समाज की कोढ़ बनी जाति व्यवस्था भी ऐसे ही खत्म होगी।’’
महेश लाल लाख तर्क देते लेकिन उनकी पत्नी उनसे सहमत होने को तैयार नहीं थीं। उनका सारा जोर इसी पर था कि चाहे जैसे भी हो महेश लाल सजातीय वर ढ़ॅूंढ़ें, और यथाशक्ति धूमधाम से, रीति-रिवाज के साथ बेटियों की शादी करें। जब कि महेश लाल ने सब कुछ नियति के भरोसे छोड़ दिया था। पत्नी की रोज-रोज की किचकिच से परेशान महेश लाल ने सोचा कि जितने कम से कम समय घर में रहें उतना ही अच्छा। अतः शाम के समय उन्होंने दो छोटे बच्चों की ट्यूशन कर ली थी। सुबह आठ बजे घर से निकले महेश लाल शाम पॉंच बजे तक फैक्ट्री में रहते, फैक्ट्री से निकलने के बाद पौने छः बजे तक कैण्टीन में अखबार पढ़ते हुए बिताते, फिर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के लिए शास्त्रीनगर चले जाते। छः बजे से आठ बजे तक ट्यूशन पढ़ाते और उसके बाद साढ़े आठ बजे तक वापस घर आते थे। ट्यूशन पढ़ा कर घर लौटते समय रास्ते भर वे यही सोचते आते कि शायद घर पॅंहुचने पर उन्हें अनीता या सुनीता के घर से भाग जाने का सु-समाचार सुनने को मिले लेकिन घर पॅंहुचने पर जब दोनों बेटियों को साक्षात सामने पाते तो मन ही मन कुढ़ कर रह जाते थे।
पिछले साल जाड़ों में महेश लाल के बड़े साले के बेटे अभय की शादी थी। अपने भतीजे की शादी मे सम्मिलित होने के लिए उनकी पत्नी दोनों बेटियों के साथ मायके गयी थीं। महेश लाल की अब कहीं भी रिश्ते-नाते में आने, जाने की इच्छा नहीं होती थी इसलिए फैक्ट्री से छुट्टी न मिलने का बहाना बना कर वे रूक गए थे। इस प्रकार पॉंच दिनों के लिए महेश लाल घर में बिल्कुल अकेले थे। इस अवधि में रात-दिन वे अपनी बेटियों के बारे में ही सोचते रहते थे। एक रात वे अपनी उत्सुकता नहीं रोक पाए और बहुत ही सावधानी पूर्वक अपनी बेटियों के सामानों की तलाशी लेने लगे। दरअसल वे यह जानना चाहते थे कि उनकी बेटियॉं वास्तव में निष्क्रिय और बोदा हैं या अंदर ही अंदर कहीं कोई खिचड़ी पक रही है। पहले उन्होनें बड़ी बेटी अनीता के सामानों की तलाशी ली लेकिन कहीं भी कोई ऐसी सामग्री नहीं मिली जो उनकी दुशि्ंचता को दूर कर सके। मन ही मन उस पर खीझ उठे वे-‘‘कमबख्त़ कुॅंवारी बैठी बूढ़ी हो रही है, अपने बाप की आर्थिक, सामाजिक स्थिति भी अच्छी तरह से जानती है फिर भी सीता, सावित्री बनी हुयी है। दुनिया में रोज क्या से क्या होता देख रही है फिर भी अकल नहीं आ रही इसको। शक्ल-सूरत से ठीक-ठाक है…जवान है फिर भी कोई लड़का नहीं पटा पा रही।’’
अनीता के सामानों को ज्यों के त्यों रखने के बाद उन्होंने छोटी बेटी सुनीता के व्यक्तिगत सामानों को खॅंगालना प्रारम्भ किया। थोड़ी देर बाद उन्हें सूटकेस में कपड़ों की तह में छुपा कर रखा एक लिफाफा मिला। उन्होंने झट लिफाफे को फैलाया और उसके अंदर रखी सामग्री बाहर निकाली। उस लिफाफे से तीन अदद अश्लील तस्वीरें निकलीं जो किसी अंग्रेजी पत्रिका से काटी गयीं थीं। उनकी ऑंखें खुशी से चमक उठीं। उन तस्वीरों को अलग-अलग कोणों से निहारने के बाद उन्होंने लिफाफे में ड़ाला और उसे यथास्थान रख दिया। सुनीता के शेष सामानों की अब वे दूने जोश से तलाशी लेने लगे। जल्दी ही उन्हें एक मोटी सी पुस्तक के अंदर रखा एक छोटा सा पत्र मिल गया। पत्र को एक ही सॉंस में पढ़ गए वे। उस पत्र में किसी लड़के ने सुनीता को गॉंधी पार्क में मिलने के लिए बुलाया था और अपने साथ प्रभात टाकीज में मेटिनी शो देखने की पेशकश की थी। महेश लाल ने उस पत्र को दो, तीन बार पढ़ा और उसे भी यथास्थान रख दिया। वर्षों बाद उस दिन महेश लाल निश्चिंता की नींद सोए।
महेश लाल के मन का आधा बोझ हल्का हो गया था। सुनीता के सामानों से मिले पत्र तथा तस्वीरों ने उन्हें सुनीता की तरफ से काफी हद तक आश्वस्त कर दिया था। अनीता अपनी पढ़ाई पूरी कर के घर बैठ चुकी थी लेकिन सुनीता अभी कालेज जा रही थी इसलिए उसके बारे में महेश लाल को यह उम्मीद जगी कि शायद वह देर, सवेर कोई साहस भरा कदम उठा ले। उसी दिन से किसी सुखद खबर की आस लगाए बैठे थे वे।
उस दिन भी कैण्टीन में बैठे महेश लाल पौने छः बजे तक अखबार के पन्नों को पलटते रहे। फिर कैण्टीन से निकल कर ट्यूशन पढ़ाने चले गए। ट्यूशन पढ़ा कर घर लौटे तो मुख्य सड़क से अपनी गली में घुसते ही उन्हें अपने मकान के सामने भीड़ सी दिखी। उनके मन में आशा की एक किरण फूटी कि शायद आज कोई शुभ सूचना सुनने को मिले। वे उत्साहित हो सायकिल के पैड़ल पर और भी तेजी से पैर मारने लगे। वे ज्यों ही अपने दरवाजे पर पॅंहुचे भीड़ छॅंट गयी और वहॉं जुटे लोग उपहास एवं हिकारत भरी नजरों से उनकी तरफ देखते अपने-अपने घरों को लौट गए। दरवाजा खुलवा कर वे अंदर गए तो देखा कि बड़ी बेटी अनीता बरामदे में गुमसुम सी खड़ी थी और पूरे घर में सन्नाटा पसरा था।
‘‘क्या बात है बेटी….यह भीड़ कैसी जमा थी अपने घर के सामने ?’’ ऑंगन में सायकिल खड़ी करने के बाद उन्होंने प्रश्न किया। अनीता ने उनके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और उनके लिए पानी लाने किचन की तरफ चली गयी। वह पानी ले कर लौटी तो उन्होंने पुनः प्रश्न किया-‘‘क्या बात है बेटी….तुम्हारी मम्मी कहॉं हैं…और घर के बाहर यह भीड़ क्यों जमा थी ?’’
‘‘जी…वो सुनीता आज कालेज गयी तो अभी तक लौट कर नहीं आयी है। मम्मी के बक्से से सात सौ रूपए और मम्मी की कान की बालियॉं भी गायब हैं। शर्मा अंकल का छोटा बेटा गोपाल बता रहा था कि तीन, साढ़े तीन बजे के लगभग उसने सुनीता को रिक्से में किसी लड़के के साथ स्टेशन की तरफ जाते देखा था।’’ अनीता ने निगाहें नीची किए अॅंटकते-अॅंटकते बताया।
‘‘और तुम्हारी मम्मी कहॉं हैं ?’’
‘‘जी…मम्मी गोपाल को साथ ले कर सुनीता को ढ़ॅूंढ़ने निकली हैं। और आप के लिए कह गयी हैं कि आप तुरन्त जाकर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवा दें।’’
हूॅं….। महेश लाल ने एक गहरी सॉंस खींची। ‘‘ठीक ही कहा जाता है कि भगवान देर, सवेर सभी की सुनता है। हे ईश्वर मेरी बेटी को सुखी रखना।’’ उन्होंने मन ही मन कहा और आराम से कपड़े बदलने लगे।